*क्या पता कब मौत आ जाये*
कोई कमाने तो कोई मिलने निकला था ,
कोई घर के लिए तो कोई घर से निकला था ,
किसी को क्या पता कब मौत आ जाये ,
कोन भला घर से मरने निकला था ll
*हमने बहुत कुछ खो दिया*
किसी का घर उजाड़ के हमने उसे विकास कह दिया,
वो बेज़ुबान थे, इसलिए उन्होंने ये सबकुछ सह लिया।
और पता चलेगा तुम्हें इन जंगलों की अहमियत का,
कि बस थोड़ा सा पाने के लिए हमने बहुत कुछ खो दिया।
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*शायर*
कुछ तो ख्वाइशे अधूरी रही होगी मेरी भी,
यूंही लोग शायर थोड़ी कहते है ll
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*सबर है*
जिन्हें हम मुफ़्त में मिले है ,
वो हमारी कीमत से बेखबर है ,
वो समझेंगे हमारी कीमत एक दिन,
बस इसी बात का सबर है ll
*मां ने गले लगाया*
मैने हर रिश्ते को आजमाया है ,
पहले सबने जेब देखी फिर हाथ मिलाया है,
खाली जेब देख के रास्ते बदलते देखे है मैने,
ऐसी परिस्थितियों में सिर्फ़ मां ने गले लगाया है ll
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*मैं घर में आइने नहीं रखता*
छोड़ने वाले मुसीबतों में छोड़ जाते है ,
दिसम्बर मायने नहीं रखता ,
मैं रखता हु मेरे ही जैसे लोगों से दोस्ती ,
इसलिए मैं घर में आइने नहीं रखता ll
*मौत भी अच्छी लगेगी तुझे*
तू रोएगी उस दिन जब हिज़्र की रात आयेगी ,
ना होगी कोई छत तेरे पास और बरसात आएगी,
और मोहब्बत है तो, मौत भी अच्छी लगेगी तुझे ,
जब मेरी किसी और के घर बारात जाएगी ll
*इंसानियत की पुकार*
हर इंसान, इंसानियत से रूठता जा रहा है,
मानवता का रोशन दिया बुझता जा रहा है।
एक ज़माना था जब पड़ोसी भी माँ-बाप जैसे थे,
और आज हर रिश्ता एक हैवान बनता जा रहा है।
भरोसे की दीवारें एक-एक कर बिखर रही हैं,
और हर एक इंसान दरिंदा बनता जा रहा है।
जिस बच्ची के नाख़ून तक नहीं आए,
उसका भी जिस्म नोचा जा रहा है।
दरिंदगी का ये काला साया कब तक यूँ ही छाएगा?
कब तक एक मासूम परिवार यूँ ही चीखता रह जाएगा?
"कब तक सोओगे, कब तक रोओगे?"
अपनी बारी का इंतज़ार करते-करते,
और क्या-क्या खोओगे?
"बस करो! अब इन दरिंदों को मारना होगा,
और ऐसा सोचने से भी पहले ही इनकी रूह काँप जाए।
बस, अब ऐसा ही कुछ करना होगा!”
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